
अमेरिकी नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने सत्ता संभालने से पहले ही विभागों के बंटवारे के साथ आने वाले चार सालों के लिए नीति निर्धारण करने में लग गए हैं। ट्रंप ने चुनाव से कई महीने पहले ही प्लान 2025 बना लिया था। न्यूयॉर्क टाइम्स और कई अमेरिकी मीडिया वेबसाइटों ने गुप्त तरीके से इन दस्तावेजों के कुछ पृष्ठ प्रकाशित किए थे, जिसमें बताया गया था कि ट्रंप अगर सत्ता में आते हैं तो किस तरीके से ब्यूरोक्रेसी में अहम बदलाव करेंगे और अमेरिकी आर्थिक नीति को भी पूरी तरह बदल देंगे।
ट्रंप चुनाव के दौरान और उससे पहले भी कई बार अपने प्रतिस्पर्धी देशों पर भारी आयात कर लगाने की बात करते आ रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार ट्रंप ने उन देशों की सूची तैयार कर ली है, जो अमेरिकी बाजारों में अपने उत्पादों का निर्यात तो अधिक करते हैं लेकिन अमेरिका से आयात कम करते हैं, जिसके कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नुकसान झेलना पड़ता है। तकनीकी शब्दों में इसे ट्रेड डेफिसिट कहते हैं।
ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म “एक्स” पर पोस्ट करते हुए लिखा, “ब्रिक्स देश नई ब्रिक्स करेंसी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अब यह समय खत्म हो चुका है कि हम खड़े होकर देखते रहें। हम उन देशों से यह आश्वासन चाहते हैं कि न ही वे ब्रिक्स करेंसी बनाएंगे और न ही डॉलर के मुकाबले किसी दूसरी करेंसी को समर्थन देंगे। अगर कोई देश ऐसा करता है, तो अमेरिका उस देश पर 100% टैरिफ लगाएगा। यानी, जो वस्तु अमेरिकी बाजार में $100 में बिकती थी, वह अब $200 में बिकेगी।” ट्रंप ने सख्त लहजे में टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसे देशों को ‘मूर्ख’ देश खोजना पड़ेगा जहां वे अपना सामान बेच सकें। इस बात की कोई संभावना नहीं है कि ब्रिक्स अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की जगह ले सकेगा, और जो भी देश ऐसा करने की कोशिश करेगा, उसे अमेरिका को अलविदा कहना पड़ेगा।
ब्रिक्स करेंसी की पहल कैसे शुरू हुई?

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में कई देश, जिनमें चीन, रूस, भारत समेत अन्य देश शामिल हैं, डॉलर के विकल्प में अपनी खुद की करेंसी—युआन, रुपया या अन्य स्थानीय करेंसी का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। लेकिन 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अमेरिका ने रूस को अंतर्राष्ट्रीय SWIFT सिस्टम से बाहर कर दिया। विदेश में मौजूद रूस के अरबों डॉलर फ्रीज कर दिए गए। युद्ध में बढ़ते खर्च और अमेरिका तथा पश्चिमी देशों के द्वारा रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों की झड़ी के बाद रूस की निर्भरता ऐसे देशों पर हो गई, जो डॉलर की जगह लोकल करेंसी में व्यापार कर सकें। चीन ने इस मौके का फायदा उठाते हुए रूस से होने वाले सारे कारोबार का भुगतान चीनी करेंसी युआन में करने लगा।
इस तरह रूस की निर्भरता चीन पर बढ़ती चली गई। 2021-22 में चीन, रूस से $1.50 बिलियन का व्यापार करता था, जो अब बढ़कर $250 बिलियन हो चुका है। खास बात यह है कि सारे भुगतान डॉलर में नहीं, बल्कि चीनी करेंसी युआन में किए जा रहे हैं। चीन के बाद भारत ने भी रूस के साथ अपने व्यापार का भुगतान रुपया या रूसी करेंसी रूबल में करना शुरू कर दिया। 2021-22 में रूस और भारत का व्यापार $13 बिलियन था, जो अब $66 बिलियन तक पहुंच चुका है। इन सारे लेन-देन का भुगतान लोकल करेंसी में किया जा रहा है।
कोविड और फिर युद्ध के कारण आई मंदी से उबरने के इस दौर में कई देशों ने अपनी स्थानीय करेंसी को व्यापार में बढ़ावा दिया। हाल ही में कज़ान में आयोजित 16वें ब्रिक्स समिट में सभी ब्रिक्स सदस्यों ने डॉलर के विकल्प के रूप में लोकल करेंसी में व्यापार करने पर सहमति जताई। भले ही कोई आधिकारिक ब्रिक्स करेंसी न बनी हो, लेकिन इस पहल को लेकर ब्रिक्स देश प्रतिबद्ध दिख रहे थे। कज़ान में हुए समिट में रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने कई देशों के समकक्षों को ब्रिक्स का एक सैंपल नोट लहराते हुए दिखाया था, लेकिन आधिकारिक रूप से ब्रिक्स करेंसी को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई। 2023 में हुए समिट में ब्रिक्स देशों ने डॉलर के विकल्प में दूसरी करेंसी लाने की बात कही थी, लेकिन उस वक्त ब्रिक्स देशों के बीच आम सहमति नहीं बन पाई थी।
अमेरिकी सत्ता में ट्रंप के आने के बाद कज़ान समिट 2024 में लोकल करेंसी में व्यापार को लेकर बनी सहमति कहीं सिर्फ कागजों तक सीमित न रह जाए, क्योंकि ट्रंप ने ब्रिक्स देशों को डॉलर के अलावा किसी अन्य करेंसी में व्यापार करने पर 100% टैरिफ लगाने की बात कही है।
अमेरिका को डॉलर की वैल्यू खत्म होने का डर?

आज के समय में भी पूरी दुनिया में करीब 80% से 85% ग्लोबल ट्रेड डॉलर में होता है। अमेरिका इसी डॉलर के बल पर पूरे विश्व में किसी भी देश पर प्रतिबंध लगा देता है। बीते कुछ सालों में चीन ने कई अफ्रीकी और कैरिबियाई देशों को चीनी करेंसी युआन में अरबों का लोन दिया है। हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू के मुताबिक, चीन ने 150 देशों को $1.5 ट्रिलियन का लोन दिया है, जबकि वर्ल्ड बैंक और IMF ने केवल $200 बिलियन का लोन दिया है। चीन की यह नीति अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपने लोकल करेंसी युआन की वैल्यू बढ़ाने और उन देशों के संसाधनों का दोहन करने की है।
इसी को लेकर अमेरिका की चिंता बढ़ी हुई है। अगर आधिकारिक तौर पर ब्रिक्स के 9 देशों ने अपनी लोकल करेंसी में व्यापार शुरू किया, तो इससे अमेरिका की बादशाहत खत्म हो जाएगी। ब्रिक्स दुनिया की करीब 41% आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक, दुनिया के जीडीपी में ब्रिक्स की हिस्सेदारी करीब 37% है। आप इस आंकड़े से अंदाजा लगा सकते हैं कि ब्रिक्स सदस्यों के द्वारा डॉलर के इस्तेमाल न करने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लग सकता है।