सुप्रीम कोर्ट के हर दूसरे फैसले के खिलाफ कानून बनाना लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी..

मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार लार्ड एक्टन ने एकबार कहा था कि “सत्ता भ्रष्ट और निरंकुश होती है। पूर्ण सत्ता मिल जाए तो उसे पूरा ही भ्रष्ट कर देती है।” उदाहरण के तौर पर हमारे सामने जर्मनी में हिटलर का पतन, रसिया रिवॉल्यूशन, ट्यूनीशिया की क्रांति और कई उदाहरण मौजूद है।

मौजूदा मानसून सत्र में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए दो महत्वपूर्ण फैसलों को रद्द करने के लिए संसद के रास्ते कानून लेकर आई जिसमे एक फैसला दिल्ली के अफसरों के ट्रांसफर, पोस्टिंग को लेकर है जिसे अब केंद्र सरकार दोनों सदनों से पास भी करवा चुकी है और अब राष्ट्रपति के अधिसूचना के बाद इसे लागू भी कर दिया गया है। अब पहले के जैसे अधिकारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार उपराज्यपाल के पास ही रहेगा।

2 मार्च, 2023 को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिया गया दूसरा महत्वपूर्ण फैसला जिसमें कोर्ट ने कहा था कि अब से चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त का चयन 3 सदस्यों की कमेटी करेगी जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा से मुख्य विपक्षी पार्टि के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का होना अनिवार्य होगा, अब केंद्र सरकार ने 3 सदस्यों की कमेटी में बदलाव करके मुख्य न्यायाधीश की जगह एक केबिनेट मंत्री सहित प्रधानमंत्री और मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता को शामिल करने का प्रस्ताव रखा है, इस बिल को अबतक राज्यसभा में चर्चा के लिए रखा गया है इसे पास करवाना अभी बाकी है। अब उम्मीद है इस बिल को अगले सत्र में सरकार पास करवा लेगी।

1985 बैच के आईएएस अधिकारी अरूण गोयल ने 18 नवंबर, 2022 को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली फिर अगले 24 घंटे के अंदर ही उन्हें चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया गया। इसी फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने खासी टिप्पणी करते हुए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए नए नियम बनाए जिसे लोकसभा चुनाव 2024 के बाद लागू होना था लेकिन केंद्र सरकार ने उससे पहले ही कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संसद में बिल ले आई। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का फैसला 5 जजों की बेंच कर रही थी जिसमें जस्टिस केएम जोसेफ, सीटी रवी कुमार, अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस और हृषिकेश रॉय शामिल थे।

इतिहास से लेकर वर्तमान सत्ताधारी पार्टीयों ने हमेशा से न्यायलय को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए संविधान में कई बदलाव किए गए, चाहे वो आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी के द्वारा लाया गए 42वां संविधान संशोधन हो जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के शक्तियों को कम किया गया। वहीं भाजपा सरकार ने 2014 में पूर्ण बहुमत मिलने के बाद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) बनाया जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट – हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति होती, इस नए कानून में जजों की नियुक्ति प्रकिया से सुप्रीम कोर्ट के जजों को हटाया गया और अस्थाई तौर पर सरकार में मौजूद पार्टियों का दखल हो गया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में सरकार के द्वारा लाए गए इस कानून कि समिक्षा करते हुए असंवैधानिक करार दिया।

अस्थाई तौर पर सरकार का सुप्रीम कोर्ट पर निशाना
संवैधानिक पदों पर बैठे कई बड़े मंत्री और नेताओं ने कोर्ट पर कई टिप्पणी की जिसमें सबसे ज्यादा चर्चा तत्कालीन कानून मंत्री किरण रिजिजू की रही, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को लक्ष्मण रेखा में रहने की सलाह दी और कई बयान जैसे कि कॉलेजियम सिस्टम गलत है, केशवानंद भारती केस जिसमें मूल अधिकार को किसी भी स्थिति में न बदलने की बात कही गई है इसे भी लेकर रिजिजू सहित उपराष्ट्रपति जगदिप धनकड़ ने सवाल खड़े किए।
लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए विधायिका, कार्यपालिका के साथ साथ न्यायपालिका कि भूमिका भी अहम होती है क्योंकि चुनाव होने के पांच सालों तक न्याय की रक्षा करना, आम लोगों को उसके मूल अधिकार से वंचित न रहना पड़े, न्याय पूर्वक शाषन व्यवस्था को बनाए रखने के लिए न्यायलय की भूमिका अहम हो जाती है।

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