
हम सभी ने इस बात को कहीं न कहीं स्कूलिंग के दौरान पढ़ा है कि भारत सोने की चिड़िया कहलाया करती थी या हमारे बड़े बुजुर्ग इस बात का जिक्र किया करते थे कि भारत पहले सोने की चिड़िया थी हमारे पास दुनिया की सबसे कीमती खनिज पदार्थ कोयला, आयरन, कॉपर, युरेनियम, जुट, तांबा के भंडार थे लेकिन अंग्रेजों के 200 साल के शासन के बाद भारत की आर्थिक स्थिति बहुत ही बदतर हो गई, अंग्रेज़ों के आने से पहले भारत दुनिया का 25% सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सेदार था 2018 में कोलंबिया विश्वविद्यालय में उषा पटनायक कि छपी रिर्सच पेपर के अनुसार ब्रिटेन ने $45 ट्रिलियन मूल्य के खनीज संपदा का दोहन और मानवीय संसाधन का उपयोग अपने फायदे के लिए किया इस डेटा में विश्व युद्ध के दौरान हुए आर्थिक नुकसान को नहीं जोड़ा गया है।2015 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में दिए लोकसभा सांसद शशि थरूर ने अपने भाषण में भारत को आर्थिक रूप से गरीबी में धकेलने के लिए ब्रिटेन को जिम्मेदार माना और ब्रिटिशराज के दौरान हुए नुकसान के लिए मुआवजा कि माँग कि। देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी शशि थरूर के मांगों का सर्मथन किया लेकिन उस वक्त के तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने इसे खारिज करते हुए वाइट मेंस बरर्डन थ्योरी के आधार पर यह दावा किया कि हमें भारत को नियंत्रण करने में भाड़ी नुकसान उठाना पड़ा।
भारत में पहली बार व्यापार करने के लिए विदेशी कंपनियों का आगमन
जब चौदहवीं शताब्दी में अरब, मिश्र, परसिया, मध्य एशिया और अरब के देशो में इस्लाम का उदय की शुरुआत हुई इसके कारण यहां पे मुसलमान शासकों का अधिकार हो गया तब भारत का व्यापार अरब निवासियों के हाथ में चला गया, अफ्रीका के पूर्वी किनारे से लेकर चीन के समुद्री तट तक अरब के व्यापारियों की कोठियां स्थापित हो गई। उस वक्त भारत से यूरोप में जो भी माल जाता था वह यूरोप के 2 नगरों जिनेवा और वेनिस से जाता था इन दोनों शहरों के व्यापारी कुस्तुंतुनिया के मंडी से भारत का माल खरीदते थे और पूरे यूरोप में के बाजारों में बेचते थे। उस समय यूरोप से भारत तक व्यापार करने का कोई समुद्री रास्ता नहीं था, वेनिस और जिनेवा के बढ़ते व्यापार और फायदे को देखकर यूरोप के बाकी देश भारत के साथ व्यापार करने को उत्सुक थे लेकिन वो सफल नहीं हो पा रहे थे। क्योंकि उनके पास भारत तक पहुंचने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था
भारत में पुर्तगालियों का आगमन
सन् 1498ई में पुर्तगाल के रहने वाला वास्को डिगामा पहला यूरोपियन व्यक्ति था जो समुद्र के रास्ते भारत में पहुंचा वह सबसे पहले केरल के मालाबार के कालीकट में पहुंचा, उसके बाद पुर्तगाल से भारत में व्यापार की शुरुआत हो गई जिन व्यपार पर पहले अरब मुसलमान व्यापारियों का कब्जा था अब उन पर पुर्तगाल का कंट्रोल हो गया, धीरे-धीरे पुर्तगाल समृद्ध और धनी राष्ट्र बनने लगा जिसे देखकर डच, ब्रिटिश, फ्रांस ने भी भारत में व्यापार करना शुरू किया, लेकिन इन विदेशी व्यपारियों में कंपटीशन चलती रहती थी सभी देश एक दूसरे को हटाकर खुद अकेले पूरे भारत में व्यापार करना चाहते थे, भारत में व्यापार करने के मामले में यूरोपीय देशों का कई दशकों तक आपस में संघर्ष चला।
भारत में डच फ्रांसीसी और ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन
सन् 1602ई में डच सरकार की अनुमती से यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने आई, डच व्यापारियों ने सबसे पहले 1605ई में आंध्र प्रदेश के मसूलिपटनम में फैक्ट्री लगाई, धीरे-धीरे डच का फैलाव भारत के विभिन्न हिस्सों में होने लगा, कोचीन, नागापटम (चेन्नई), पांडिचेरी में डच ने अपनी व्यापार को बढ़ाया यहां तक कि वह अपना लोकल सिक्का भी व्यापार के लेनदेन में जारी किया, भारत का बाजार सभी के लिए खास था इसलिए यूरोपीय देश भारत में अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए आपस में लड़ा करते थे इसी कारण सन् 1814ई में डच और अंग्रेजों के बीच बंगाल में व्यापार के क्षेत्र को लेकर एक ट्रीटी हुई।
सन् 1608ई में ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ का रॉयल फरमान लेकर भारत में व्यापार करने आई, धीरे धीरे डच और पुर्तगाल का व्यापार सीमित होने लगा वहीं ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापार भारत में बढ़ने लगा, इष्ट इंडिया कंपनी सूरत, बॉम्बे, मद्रास, मसूलिपटनम, बंगाल में फैक्ट्री लगाई। भारत के कच्चे माल कॉटन, नील, मखमल, चावल, अफीम, सिल्क, इस्पात, लोहा इत्यादि से वस्तुएं बनाकर यूरोप के देशों में निर्यात करने लगी जिसे इंग्लैंड के व्यापार में तेजी आ गई और इंग्लैंड धनी और समृद्ध राज्य बनने लगा। सन् 1664ई में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन भारत में हुआ, 4 साल बाद फ्रेंच ने सूरत में अपनी पहली फैक्ट्री लगाई सन 1669ई में दूसरी फैक्ट्री मसूलीपटनम में लगाई सन् 1673ई में पांडिचेरी में डच को हटाकर अपने व्यपार की शुरुआत की।
ईस्ट इंडिया कंपनी का विस्तार और भारत पर नियंत्रण
भले ही दूसरे यूरोपीय देश भारत में व्यापार करने आ रहे थे लेकिन इंग्लैंड ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव सबसे ज्यादा था भारत में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए सारी कंपनियां राजनीतिक भागीदारी को भी बढ़ाने लगी जो कंपनियां जिस राज्य में अपनी फैक्ट्री लगाती वहां के नवाब को खुद चुनती या अपने अंदर काम करने को विवश करती ऐसे करते धीरे-धीरे अधिकांश नवाब (बंगाल के नवाब लखनऊ के नवाब मद्रास के नवाब) ईस्ट इंडिया कंपनी के चाटुकार बन गए, लेकिन अभी भी कई क्षेत्र में डच और फ्रांसीसी का कब्जा था..अंतत 1764 इसमें में बैटल ऑफ़ बक्सर के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने बिहार, बंगाल उड़ीसा में दीवानी (नबाबों को सुरक्षा के बदले टैक्स देना) के अधिकार हासिल कर लिए, धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे भारत में दीवानी के अधिकार ले लिए, इस टैक्स संग्रह का एक 1/3वां हिस्सा उन्होंने भारत में खर्च करने के बजाय भारत से कम दामों में चावल, कॉटन, टिंबर, मखमल, इंडिगों, इस्पात, अफिम खरीदकर बाहर के युरोपीय देशों में बेचा करती थी जिससे इस्ट इंडिया कंपनी को भारी मुनाफा होता था
बैटल ऑफ़ बक्सर के बाद ही इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई इसमें भारत का बहुत बड़ा योगदान था।
बैटल ऑफ़ बक्सर के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय व्यापारियों को सोने, चांदी के सिक्के से भुगतान नहीं बल्कि उन्हें भारत में मिलें दीवानी के अधिकार से मिले टैक्स के पैसे से ही व्यापारियों को भुगतान करती थी।
अंततः 1858ई में आधिकारिक तौर पर भारत का कंट्रोल ब्रिटिशर के हाथों में चला गया, तो अब ईस्ट इंडिया कंपनी की एकाधिकार खत्म हो गई लेकिन यह भी एक ब्रिटिश की सोची समझी निती थी, पहले जहां भारतीय व्यापारियों को भुगतान के लिए टैक्स के वसूलें गए पैसों या सोना, चांदी के सिक्के दिया करते थे वहां अब अंग्रेजों ने “स्पेशल काउंसिल बिल” के माध्यम से व्यापारियों को भुगतान की शुरुआत की, भारतीय व्यपारी “स्पेशल काउंसिल बिल (डॉक्यूमेंट)” को ब्रिटिश ऑफिसर को सौंपकर अपना पैसा लेती थी लेकिन असल में बात ये थी कि ब्रिटिश अधिकारी स्पेशल काउंसिल बिल का भुगतान भी भारतीय व्यापारियों के टैक्स रेवेन्यू से ही करती थी, ब्रिटिशर के आने से पहले भारत का विश्व का अकेले 25% सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सेदार था लेकिन जैसे ही ब्रिटिश शासन का विस्तार भारत में हुआ भारत की शक्ल घरेलू उत्पाद कम होते चली गई, यूएन के डाटा के अनुसार 1980 से 1930 तक भारत का व्यापारिक निर्यात दुनिया में दूसरे सबसे बड़े स्थान पर था यूएस के बाद।
ब्रिटिश पक्षपाती व्यापार प्रणाली
मध्य 18वीं शताब्दी में जहां कई देशों में औद्योगिकी क्रांति की शुरुआत हुई वहीं दूसरी ओर भारत में विऔद्योगिकीकरण की शुरुआत हो गई, 17वीं शताब्दी तक भारत में के हैंडलूम, कॉटन की मांग यूके, यूरोप में भारी मात्रा में थी लेकिन जब ब्रिटेन और कई यूरोपीय देशों में औद्योगीकरण की शुरुआत हुई तो भारत का कपड़ा उद्योग बर्बाद हो गया क्योंकि यूके, यूरोप के कपड़े ज्यादा सस्ती, टिकाऊ और फिनिशिंग थी, जहां भारत के कपड़ा उद्योग पर 40%- 50% टैक्स लगाया जाता था वहीं दूसरी ओर ब्रिटिशर भारत से ले गए कच्चे माल से बनाएं कपड़ों को यूरोप में कम दामों में बेचते थे ब्रिटिशर ने भारतीय संसाधन का उपयोग दूसरे देशों में पूंजीवाद का विस्तार और युद्ध लड़ने में किया, ब्रिटेन यूरोप, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में भी भारत से निकाले गए खनिज संपदा से बनी वस्तुएं या भारी मात्रा में वसूले गए टैक्स का इस्तेमाल व्यापार को बढ़ाने के लिए कर रही थी।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी में छपे उषा पटनायक के रिसर्च पेपर के अनुसार ब्रिटिशर ने $45 ट्रिलियन मुल्य के खनिज संपदा का दोहन और माननीय संसाधन का इस्तेमाल 1764ई से 1947ई तक किया, ये सिर्फ अधिकारिक डेटा है इस डेटा में वह भी खर्च नहीं जोड़े गए जो भारत में वर्ल्ड वॉर 1 और वर्ल्ड वॉर 2 के दौरान हुए नुकसान में झेलना पड़ा था वर्ल्ड वॉर वन में 13 लाख भारतीय सैनिक लड़ रहे थे जिसमें 54000 भारतीय सैनिक कि सहादत हो गई थी भारत का इस युद्ध से कोई लेना – देना नहीं था, सिर्फ ब्रिटिश कि कॉलोनी होने के कारण हमें ये युद्ध लड़ना पड़ रहा था इसमें भारत को 10 करोड़ पाउंड का नुकसान हुआ था वर्ल्ड वॉर 2 में 120 करोड़ पाउंड का नुकसान झेलना पड़ा था।
ब्रिटिश इतिहासकारों का दावा
ब्रिटिश इतिहासकार नेल फर्गुसन इस बात का दावा करते हैं कि भारत में व्यापार करने में हमें नुकसान झेलना पड़ा, 2014 की you.gov.com के सर्वे के मुताबिक इंग्लैंड की जनता इस बात को स्वीकार करती है कि भारत को कॉलोनी बनाए जाने के दौरान हमें आर्थिक नुकसान हुआ, लेकिन सच्चाई ऐसी नहीं है क्योंकि यूएन के रिपोर्ट के अनुसार 1900ई- 1930ई तक भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक निर्यातक देश था इसके बाद फिर कैसे संभव हो पाया कि ब्रिटेन को नुकसान हुआ। ब्रिटेन दूसरा दवा यह करता है कि हमने भारत में शिक्षा व्यवस्था की शुरुआत की, ये भी पूरी तरह सत्य नहीं है क्योंकि ब्रिटिशर रेलवे, पोस्टल, सरकारी नौकरशाही में छोटे पदों पर कलर्क की बहाली के लिए लोग चाहिए थे इसलिए उसने आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की शुरुआत की।
सवाल सबसे पहले उठता है कि अगर ब्रिटिशर ने सच में भारत में इतनी विकास की तो क्यों 200 सालों के राज में भी भारत के लोगों के प्रति व्यक्ति आय नहीं बढ़ी, सवाल यह भी उठता है कि 1820ई से लेकर 1920ई के बीच औसतन संभावित आयु का पांचवा भाग तक कम हुआ? क्यों ब्रिटिशर की गलत नीतियों के कारण बंगाल में सुखार के कारण 40 लाख लोगों की मृत्यु हो गई, ब्रिटिशर का दावा ये भी है कि हमने ट्रांसपोर्टेशन को सुधारा रेल लाइन, सड़के बनाई, यह भी दावा पूरी तरह सत्य नहीं है क्योंकि ब्रिटिशर भारत से निकाले गए कच्चे माल को बाहर भेजने के लिए इन रेल लाईन और सड़कों का इस्तेमाल किया करते थे, इतनी सब कुछ होने के बावजूद भी ब्रिटिशर दावा करते हैं कि हमने भारत को सभ्य समाज बनाया.. मेरा मानना है कि ब्रिटिशराज के दौरान हुए भारत के आर्थिक नुकसान के लिए इंग्लैंड को मुआवजा देनी चाहिए, हाँ मैं मानता हूं कि इतना मुआवजा ($45 ट्रिलियन) देना मुश्किल है लेकिन भारत को एक समृद्ध राष्ट्र बनाने में आर्थिक मदद करनी चाहिए।