अफगानिस्तान झेल रहा मानवीय त्रासदी, विश्व देख रहा तमाशा

आज के समय एशिया महाद्वीप में सबसे अधिक चर्चा अफगानिस्तान पर तालिबान की कब्जे की हो रही है किसी को यह अंदेशा नहीं था कि इतनी जल्दी तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो जाएगा यहां तक कि तालिबान के एक प्रवक्ता ने कहा “मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी हम जंग जीत लेंगे” पूरा विश्व इस बात से अचंभित था कि कैसे अमेरिकी ट्रेंड 3 लाख अफगानी सैनिक 75,000 तालिबानियों के सामने रातों-रात घुटने टेक दिए, जहां 2 दिन पहले ही अमेरिका B52 बांबर से 562 तालिबानियों को मार गिराया और अमेरिकी ने दावा भी किया था कि तालिबानी हमारे जाने के बाद (31 अगस्त के बाद) काबुल पर कब्जा कर लेगा लेकिन ठीक इसका उल्टा हुआ, 15 दिन पहले ही तालिबान काबूल पर कब्जा कर लिया, काबुल पर कब्जा होने से पहले पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़ भाग गए, हमें इतिहास से सीखने की जरूरत है। कैसे मगध के राजा धनानंद के खात्मे के बाद मगध की विशाल सेना ने चंद्रगुप्त मौर्य के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, हम हारेंगे या जीतेंगे इसका निर्णय युद्ध होने के पश्चात पता चलेगा अगर हम पहले ही हार मान ले तो फिर हमें हारने से कोई नहीं रोक सकता: चाणक्य

तालिबान का इतिहास
तालिबानी संगठन का जन्म उस समय होता है जब विश्व की दो महाशक्तियां सोवियत संघ और अमेरिका अफगानिस्तान को अपने कब्जे में करने के लिए अस्थाई तौर पर आमने सामने रहती है। सन् 1979 में सोवियत संघ ने हफिजुला आमीन को मरवा कर खुद अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो जाती है। 1991 में जैसे जैसे सोवियत से बहुत सारे देश बाहर निकलने लगते हैं वहीं दूसरी तरफ अमेरिका सोवियत संघ के खिलाफ खड़ी हुई ग्रुप को ट्रेनिंग देता है और भारी मात्रा में हथियार, पैसा सप्लाई करता है अमेरिका द्वारा ट्रेंड मुज्जाहीदीन सोवियत संघ को नुकसान पहुंचाने लगते हैं। तभी पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच जेनेवा समझौता के तहत सोवियत संघ और अमेरिका, अफगानिस्तान से निकलने को राजी होते हैं, सोवियत संघ पीछे हट जाता है लेकिन अमेरिका अभी भी विद्रोही ग्रुप मुजाहिद्दीन को हथियार, पैसा मुहैय्या करवाता रहता है जिससे कि वह अपनी पकड़ अफगानिस्तान पर मजबूत कर सके, सन् 1991 में अफगानिस्तान से सोवियत संघ के निकलने के बाद मुजाहिद्दीन और कई इस्लामी ग्रुप मिलकर सरकार बनाती हैं और बुराहूदिन रब्बानी राष्ट्रपति नियुक्त होते हैं लेकिन सत्ता में अपनी पकड़ पाने के लोभ से मुजाहिद्दीन के अंदर ही कई ग्रुप बन जाते हैं। फिर 1996 में सरकार गिर जाती है और तब एक और नई संगठन का जन्म होता है जिसका नाम होता है नॉर्थर्न एलायंस जिसमें ज्यादातर लोग ताजिक समुदाय (tajic ethnicity)  के होते हैं और इसके अध्यक्ष अहमद शाह मसूद को बनाया जाता है। 1996 से 2001 के बीच कई बार अहमद शाह मसूद और तालिबान के बीच युद्ध होता है जिसमें तालिबान को हार का सामना करना पड़ता है लेकिन 2001 में अहमद शाह मसूद मारा जाता है। इस दौरान तालिबान की शक्ति इतनी ज्यादा हो जाती है कि वो अमेरिका को भी आंखे दिखाने लगता है, उसी दौरान तालिबान के सह पर अलकायदा अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर देता है जिसमें 3000 से ज्यादा लोग मारे जाते हैं जिस तालिबान को अमेरिका ने बनाया था आज वही तालिबान अमेरिका के खिलाफ बगावती तेवर अपना चुका था उतना ही नहीं पूरे अफगानिस्तान में तालिबान लोकतंत्र को ताक पर रखकर लोगों का खून करता, बच्चों को गोली मारता, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करता फिर अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश 9/11 का बदला लेने के लिए ऑपरेशन एंडोरिंग फ्रीडम (Enduring Freedom) के तहत 20,000 अमेरिकी सैनिक को अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने और आतंकवादियों के खात्मा करने के लिए भेजते हैं (लोकतंत्र और आतंकवाद को खत्म करना अमेरिका की दिखावती निती रहती है असल में वो अफगानिस्तान से खनीज संपदा निकालना चाहता है। करीब 20 साल तक अमेरिकी सेना और तालिबानी के बीच संघर्ष चलता है। इससे तालीबान की जमीन कमजोर तो होती है लेकिन पुरी तरह खत्म नहीं होती। अमेरिका दो दशक में तालिबान के खात्मे के लिए करीब 3 ट्रिलियन डॉलर अफगानिस्तान पर खर्च करती है। अंततः अमेरिका के लोगों का विरोध होने के कारण 46वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अफगानिस्तान से बाहर निकलने का फैसला करते हैं। वाशिंगटन पोस्ट के माध्यम से एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि अमेरिका के 36वें राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 1977 -1981 के बीच तालिबान पर करीब $500000 खर्च किए उसके बाद लगातार 2001 तक जितने भी अमेरिकी राष्ट्रपति आए सभी ने तालिबान को हथियार और पैसा मुहैया करवाती रही।

अमेरिकी विमान से गिरते 2 लोग, जगह नहीं होने से पहिए पे लटक गए थे विडियो (1)

आज के संदर्भ में तालिबान की स्थिति
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 11 सितंबर तक अफगानिस्तान छोड़ने का ऐलान किया था लेकिन तालिबान के दबाव में आकर तत्कालीन राष्ट्रपति जो बाईडन दोहा समझौते के तहत 31 अगस्त तक अफगानिस्तान छोड़ने का फैसला करते हैं लेकिन इसके पहले तालिबान पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर चुका है। सभी देश अपने- अपने उच्चायुक्त और अपने नागरिकों को अफगानिस्तान से निकालने में जुटी है लेकिन इतनी आसानी से अफगानिस्तान से बाहर निकलना मुश्किल सा है क्योंकि पूरे अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा हो चुका है। वाणिज्यिक उड़ान (commercials flight) को उड़ने की अनुमति नहीं है और एक ही अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा होने की वजह से हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ जमा है। विडियो (1) में दिख रहे अमेरिकी एयरफोर्स विमान की है इसमें दो लोग काबुल से बाहर निकलने के लिए प्लेन में जगह नहीं होने की वजह से पहिए पर लटक गए बाद में गिरने से उनकी मौत हो गई। तालिबान के कब्जे के बाद हजारों की संख्या में अल्पसंख्यक हिंदू, सिख, जैन समुदाय के लोग और साथ में वैसे अफगानी लोग जो अमेरिका के साथ तालिबानियों को हराने में देते थे वे सब अब अफगानिस्तान से किसी तरह बाहर निकलना चाहते हैं। काबुल पर कब्जा होने के अगले दिन ही तालिबान ने ऐलान किया कि कोई भी महिला काम करने नहीं जाएगी और बाहर जाने के समय बुर्के पहनना अनिवार्य होगा, काबूल मिडिया के हवाले से बताया गया कि सरकारी महिला न्यूज एंकर खादिजा अमीन को हटा दिया गया है, वहीं महिला गवर्नर शलमा मजारी को भी हटा दिया गया है। अफगानी नागरिकों को यह डर सता रहा है कहीं 1990 के दशक जैसे तालिबान सारी महिलाओं को पढ़ने, घूमने, नौकरी करने वालों को मार ना डाले, हाल ही में कई खबर सामने आ रही जिसमें तालिबान की क्रूरता दिख रही है। जलालाबाद में तालिबान के खिलाफ प्रदर्शन करने पर 3 महिलाओं को मार दिया गया और जितने भी लोग अमेरिका का साथ दिए थे उन्हें तालिबान खोज खोज कर मारता जा रहा है।

तालिबान से सुरक्षित रखने के लिए अफगानी अपने बच्चों अमेरिकी सैनिक को सौंप रहे हैं..

आंख बंद किए हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद
मानव अधिकार के पैरोकार देश आज सिर्फ अपने स्वार्थ देख रहे हैं जब यही देश, कश्मीर में आतंकियों को मारा जाता है तो भारत को मानव अधिकार का पाठ पढ़ाने लगते हैं लेकिन आज जो अफगानिस्तान में हो रहा है उस पर सारे चुप हैं काबुल एयरपोर्ट पर छोटे-छोटे बच्चे, महिलाएं किसी भी तरह अफगानिस्तान से बाहर निकलना चाहते है। एयरपोर्ट के चारों ओर तालिबान का कब्जा है, पिछले कई दिनों से काबुल एयरपोर्ट पर छोटे-छोटे बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग खुले आसमान के नीचे सो रहे हैं और खाने-पीने की भी समस्या उत्पन्न हो गई है। एक बोतल पानी की 3000 में बिक रही है वहीं एक प्लेट चावल 7-8 हजार में मिल रहा है। एयरपोर्ट के बाहर तालिबानी डेरा डाले बैठे हैं डर से लोग एयरपोर्ट के बाहर नहीं जा रहे हैं जिससे वह खाने-पीने की वस्तुऐं ला सके। 30,000 से ज्यादा अफगानी लोग जिन्होंने अमेरिका के साथ दिया या तालिबान का विरोध करते हैं या जो अल्पसंख्यक समुदाय से हैं वो इस उम्मीद से बैठे एयरपोर्ट पे बैठे हैं कि उन्हें कोई लेने आएगा। सबसे बड़ी और डराने वाली खबर काबुल मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक तालिबान ने स्पेशल फोर्स बद्री 313 का एक सुरक्षा दस्ता तैयार किया है जिसके पास हाई लेवल बुलेट प्रूफ जैकेट, नाइट विजन हैमलेट, अमेरिकन M4 राइफल मौजूद है जो कि अच्छे-अच्छे देश के पास इतनी सारी आधुनिक उपकरण उपलब्ध नहीं है। अमेरिका ने बहुत बड़ी गलती की है अफगानिस्तान छोड़ने से पहले अमेरिकन सेना अपनी ज्यादातर हाई लेवल बुलेट प्रूफ गाड़ियां, जैकेट, M4 राइफल, कम्युनिकेशन सेटेलाइट इत्यादि अफगानिस्तान में छोड़ गई है, अमेरिका के सांसद जिम बैंक के मुताबिक अमेरिका $85 बिलियन का हथियारों का जकिरा अफगानिस्तान में छोड़ चुका है। अब ये सारी उपकरण तालिबान के हाथों में है जिससे कि वो पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो गया है। जब से काबुल पर तालिबान का कब्जा हुआ हर दिन किसी न किसी के मारे जाने की खबर सामने आ रही है।

सुझाव
मेरा मानना है कि विश्व के किसी भी देश को तालिबान को मान्यता नहीं देनी चाहिए, तालिबान के आने वाली हर आर्थिक मदद को बंद करने की जरूरत है। सबसे बड़ी और अहम बात यूएनएससी के सभी सदस्य मिलकर संयुक्त राष्ट्र शांति बल भेजने की मांग करनी चाहिए, जिससे कि अफगानिस्तान में शांति व्यवस्था कायम रहे और जिन लोगों को अफगानिस्तान से बाहर निकालना है उन्हें सुरक्षित बाहर निकाला जाना चाहिए, इस समय दुनिया को भारत से सीखने की जरूरत है कैसे भारत ने अफगानिस्तान के लिए इमरजेंसी विजा की घोषणा की जिससे कि किसी भी समुदाय के लोग वीजा के लिए अप्लाई कर सकते हैं, अगर आप अफगान मुसलमान हो फिर भी आप भारत में शरण ले सकते है वहीं दूसरी ओर रूस, पाकिस्तान, चीन अफगान शरणार्थियों को जगह देने से इंकार कर चुका है।

काबूल एयरपोर्ट पर बाम्ब बलास्ट
हामिद करज़ई अंतर्राष्ट्रीय काबूल एयरपोर्ट पे 2 फिदायीन हमलावरों (ISIS) ने ख़ुद को उड़ा लिया धमाका इतना जोरदार था कि लोगों के चिथड़े उड़ गए, मारे जाने में 70 से ज्यादा अफगानी नागरिक, 28 तालिबानी लड़ाके, 13 अमेरिकी मैरिन नेवी फोर्स और 20 फोर्स के जख्मी होने कि खबर है। लेकिन आश्चर्य कि बात यह है कि इस हमले की जानकारी पहले ही सबको थी उसके बावजूद भी इतनी बड़ी हादसा होने से नहीं रोका गया। फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी ने अफगानिस्तान में रुके हुए अपने लोगों के लिए दिशानिर्देश जारी किया था लेकिन सवाल यह है कि आखिर जिन लोगों को अफगानिस्तान से बाहर जाना है वो एयरपोर्ट के अंदर रहे क्योंकि एयरपोर्ट के बाहर कब तालिबानी उनको मार दे या वो किसी कारण बस 31 अगस्त तक नहीं जा पाए तो फिर उनका क्या होगा ? यहाँ अगर अमेरिका कि कोशिश होती तो इतनी बड़ी घटना होने से बचाया जा सकता था क्योंकि सबसे बड़ी फोर्स अभी एयरपोर्ट पे अमेरिका कि है दूसरे देशों की तुलना में। एक आखिरी सवाल आप सभी से, इस हमले का जिम्मेदार किसे माना जाए ?  एक आंतकवादी समुह जिसके हाथ सत्ता चली गई हो या एक वो जिसने अपने स्वार्थ के लिए 20 सालों तक $1,100 बिलियन से ज्यादा हथियारों और गोला – बारूद पे खर्च किए क्योंकि उसे भारी मात्रा में खनीज संपदा का दोहन करना था और जब समय अमेरिका के अनुकूल नहीं है तो पिछले दरवाजे से भाग रही है। मैं निजी तौर पे इस बात से आश्चर्य हूं कि आज संयुक्त राष्ट्र परिषद् कहाँ है ? और मानव अधिकार का पैरोकार देश आज क्यों नहीं बोल रहे जब 100 से ज्यादा लोगों की शरीर के भाग चिथड़े उड़ गए, लोगों के खून नाले में ऐसे बह रहे हो जैसे पानी हो।

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