
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा- “जागीए और देखीए देश में क्या हो रहे हैं ? सरकार- आप ये नहीं बताए कि नीति कैसे बनानी है। पिछले कुछ दिनों सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट सभी ने सख्त टिप्पणी की (आक्सीजन की कमी से मरना किसी नरसंहार से कम नहीं- इलाहाबाद हाईकोर्ट, भीख मांगीए, उधार लीजिए लेकिन आक्सीजन लाइए इत्यादि) लेकिन सख्त फैसले सुनाने से बचती रही, कोर्ट को भी पता है कड़े फैसले के परिणाम क्या हो सकते हैं। देश में जब कभी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी उस दौरान स्वतंत्र संस्थाए कमजोर हुई, चाहे वो चुनाव आयोग हो, आरबीआई हो, कोर्ट हो, मिडिया हो, सीबीआई हो, ईडी हो या कई जांच एजेंसियां हो, कहीं ना कहीं सभी ने सरकार से अपनी नजदिकीयां बनाए रखने में ही भलाई समझी, जो लोग साथ नहीं आए उनका हस्र पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, पूर्व सीबीआई डारेक्टर आलोक वर्मा या आईएएस ऑफिसर मो. मोहसिन जैसे अधिकारियों कि तरह हुआ। आप सभी को याद दिलाने के लिए थोड़ा पिछे चलते हैं, साल 2019 लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के विवादित टिप्पणी करने पे चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने बयान को गलत ठहराया और कारवाई करने की मांग कि लेकिन 2 और चुनाव आयुक्त ने प्रधानमंत्री का समर्थन किया, लवासा ने अपनी मत को कागजों के पन्नों में दर्ज करने को कहा जब वो भी नहीं हुआ तो अशोक लवासा ने इस्तीफा दे दिया, जब किसी अधिकारी को प्रत्यक्ष रूप से हटाया नहीं जा सकता है तो उसे इतना अपमानित करो कि वो खुद हट जाए, भारत में चुनाव आयुक्त सुप्रीम कोर्ट के जज के समतुल्य शक्ति रखता है। दूसरी घटना सीबीआई से जुडी हुई है, साल 2018 में जब सीबीआई डारेक्टर आलोक वर्मा ने गुजरात के मिट कारोबारी मोईन कुरेशी के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के तहत जांच शुरू कि तो उन्हें प्रत्यक्ष रूप से कमजोर बनाने के लिए गुजरात कैडर के आईएएस अफ़सर राकेश अस्थाना को स्पेशल सीबीआई डारेक्टर नियुक्त कर दिया गया। अब जो सत्ता चाहती थी वहीं हुआ फिर आस्थान ने आलोक वर्मा पे भ्रष्टाचार के आरोप लगाए तब केन्द्र सरकार ने उन्हें पद से हटा दिया। तिसरी घटना: 2019 में हुए उड़िसा चुनाव में प्रधानमंत्री के रैली के दौरान चुनाव प्रोटोकॉल के तहत प्रधानमंत्री के चौपर की तलाशी ली गई, इसके बाद आईएएस अफसर को बर्खास्त कर दिया गया। एक और जानकारी आपको दे दूं 2 सालों के बाद भी आज तक अशोक लवासा के घर इनकम टैक्स छापे पड़ रहे हैं क्योंकि दूसरा व्यक्ति आवाज उठाने से पहले सोचे, और पूर्व सीबीआई डारेक्टर आलोक वर्मा अपने रिटायरमेंट और भत्ता लेने के लिए कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं। बहुत ही कम ऐसे लोग होते हैं जो सत्ता के खिलाफ आवाज उठाते तो उनका हस्र कुछ ऐसा होता है।
अब लौटते हैं वर्तमान बिषय पे, सवाल उठता है कि क्या अगर सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट सरकार के मन मुताबिक फैसले नहीं देती है तो उनके साथ भी वहीं होगा जो अशोक लवासा और आलोक वर्मा जैसे कई इमानदार अफसरों के साथ हुआ? अगर अतीत को देखे तो समझ आऐगा कि कैसे इंदिरा गांधी ने अपने फायदे के लिए 3 सिनियर जस्टिस को पिछे छोड़ जस्टिस एन. राय को सुप्रीम कोर्ट के चिफ जस्टिस के तौर पर नियुक्त कर दिया गया। कई और फैसले जिसमें सरकार ने कोर्ट को आईना दिखाया जैसे: सुप्रीम कोर्ट के साहबानो केस को सरकार ने संसद में कानून बनाकर पलट दिया। 1992ई में दिए गए, सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया, कोई भी राज्य और केंद्र 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दे सकती लेकिन आज पूरे देश में 60%- 65% आरक्षण दिए जा रहे हैं। कई उदाहरण है जहां सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान नहीं हुआ, अब कोर्ट भी जानती है कि सिर्फ नोटिस देने, फटकार लगाने और अपनी आत्मा को संतुष्टि दिलाने के लिए कुछ कड़े टिप्पणी के अलावा हम ज्यादा कुछ कर नहीं सकते।
शायद इसिलिए लाखों की संख्या में लोगों कि जान आक्सीजन की कमी, बेड कि कमी, सही समय पर स्वास्थ्य उपचार नहीं मिल पाने से हुई, अंतिम संस्कार के पैसे ना होने पे 1500-4000 लोगों को गंगा में बहाना, किसी बेटे के पास इतनी उंची पहुँच नहीं थी कि वो अपने बाप के कोविड से मृत्यु होने का सर्टिफिकेट बनवा सके, जिससे कि उसे बिमा का पैसा मिल सके। इन सारे बातों पे कोर्ट ने नाराजगी तो जताई लेकिन फैसले नहीं दिए, लेख में लिखी गई सारी घटनाओं का मैंने अच्छे से अध्ययन किया है टूटी होने की संभावना कम है। मेरा आप सभी युवा दोस्तों से निवेदन है कि वो समाज, राजनीति और जिनको आपने चुना उसने क्या किया सभी पे विचार करनी चाहिए। यह लेखक के नीजी विचार है। ~ मनीष कुमार