
वैश्वीकरण भूमंडलीकरण दोनों का अर्थ एक ही है, स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं, सेवाओं, परंपरा, संस्कृति को विश्व स्तर से जोड़ना, बहुत सारे इतिहासकारों का मानना है कि भूमंडलीकरण की शुरुआत 18वीं सदी में हो गई थी लेकिन 1980 ई. में इसकी चर्चा जोर पकड़ ली जब अमेरिका ने “वाशिंगटन कंसेंसस” के तहत सभी देश को अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व स्तर पर जोड़ने की बात कही यह सिर्फ सुझाव था तब चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व के लिए खोल दिया लेकिन भारत में राजनीतिक अस्थिरता और कुछ दूसरे कारण से ऐसा नहीं हो पाया, 1991 ई. में भारत ने भी अपनी पूरी अर्थव्यवस्था को विश्व स्तर से जोड़ दिया इस आर्थिक सुधार से नए रोजगार, मध्यवर्ती उत्पाद, नए प्रौद्योगिकी तो हुए लेकिन एक भयावह सच यह भी है कि इससे असमानता और गरीबी बढ़ी , वैश्वीकरण पूंजीवाद का ही एक स्वरूप है। मध्य 18वीं सदी में पूंजीवाद की शुरुआत होती है, पूंजीवाद एक ऐसी व्यवस्था जहां पूंजी की चलन होती है और नियंत्रण सिर्फ एक संस्था या एक खास व्यक्ति के हाथों में होता है। आक्सफेम की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 63 लोगों के पास सालाना बजट से ज्यादा संपत्ति है अब थोड़ी वैश्वीकरण को समझने की कोशिश करते हैं भारत के संदर्भ में 1991 से पहले जितनी भी कंपनियां थी उस सरकारी थी या सरकार के अंदर थी सरकार अपने अनुसार किसी भी वस्तु की किमत या किस वस्तु की कितनी उत्पादन करनी है यानी सबकुछ सरकार ही तय करती थी 1991 ई. में हुए आर्थिक बदलाव के बाद सारी शक्ति कंपनीयों के हाथ में आ गई ।
आखिर कैसे वैश्वीकरण से बढ़ रही गरीबी
वैश्वीकरण होने के बाद रोजगार मिली, नई टेक्नोलॉजी भी आई लेकिन गरीबी, असमानता बढ़ी एक उदाहरण से समझिए एक कंपनी 1 महीने में 10 लाख के वस्तुओं का उत्पाद करती है, तब वहां काम करने वाले मजदूर की वेतन 5000 रहती है। अगले महीने वही कंपनी 50 लाख का उत्पादन करती है लेकिन मजदूरों की काम करने की समय सीमा बढ़ा दि जाती है लेकिन उनके वेतन 5000 ही रहती है, जैसे आज के दिन में बहुत सारी दवा निर्माता कंपनीयाँ का उत्पादन 50 – 60 फिसदी बढ़ गयी है लेकिन कर्मचारियों की सैलरी लगभग सामान्य है। 70 – 80 फिसदी पैसा सिर्फ एक व्यक्ति के पास चला जाता है, ऐसे ही 1991 के बाद हुआ कंपनियाँ अपने अनुसार नियम बनाने लगी वस्तुओं की कीमतें तय करने लगी भारत में राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी दर ₹176/दिन है। लेकिन 60% लोगों को न्यूनतम मजदूरी दर भी नहीं मिलता है। वैश्वीकरण को लाने का मतलब ही था कि पैसा कैसे बनाया जाए चाहे वो किसी के अधिकार का हनन करके हो या प्राकृतिक संसाधनों का गलत उपयोग करके उसे अपना फायदा चाहिए इसका एक नमूना आज हमारे सामने है। कोरोना महामारी के रूप में देखने को मिल रहा है, थोड़ी गहराई से सोचेंगे तो आपको पता चलेगा कि कोरोनावायरस के पीछे भी हमारे ही हाथ है वैश्वीकरण से वातावरण को भी नुकसान पहुंचता है, विकास के नाम पर लोगों को उसके अधिकार से बेदखल करना बड़ी-बड़ी कंपनियां खनन परीयोजना के तहत 1000 एकड़ जमीन को बंजर कर देती है और जो लोग उस प्राकृतिक संसाधनों पर टिके रहते हैं वो और गरीब हो जाते हैं, इससे सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण होता है लेकिन इसका लाभ सिर्फ कुछ ही लोगों को होता है हाल-फिलहाल कि एक घटना है अंडमान-निकोबार आइलैंड को विकास करने के लिए जापान ने 233$ बिलीयन दिए , लेकिन आप सोचिए जो आदिवासी समुदाय वहां पर रह रहे हैं उनका क्या होगा?
भारत में गरीबी बढ़ने का एक कारण ये भी है…
वैश्वीकरण होने से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक दूसरे से मिल गई बड़ी संख्या में वस्तुओं का आयात निर्यात होने लगी लेकिन इसका सबसे ज्यादा फायदा विकसित देशों को ही हुआ। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे देश के पास ना हमारे इतने प्राकृतिक संसाधन, प्राकृतिक संपदा थी फिर भी कैसे उन्होंने वैश्वीकरण से फायदा हुआ, समझीए कैसे- जितने भी विकसित देश है उन्होंने अपने टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके भारत में जितनी भी खनिज संपदा, प्राकृतिक संसाधन के स्रोत थे उनका दोहन किया फिर इसी खनिज पदार्थों को अपने देश में ले जाकर वस्तुओं का निर्माण करना और उसी देश को बेचना जहां से उन्होंने खनिज संसाधनों का दोहन करवाया था हमारे ही समान को हम ही से 55-60 गुणा ज्यादा मुल्यो में बेचा गया। लेकिन हम समझ नहीं पाए , कुछ बची हुई खनिजों का इस्तेमाल हमने किया और कुछ वस्तुएं बनाई लेकिन उसमें गुणवत्ता नहीं होने के कारण मांग भी नहीं थी वही बड़ी-बड़ी कंपनियां हमारे ही खनिजों का इस्तेमाल कर हमसे 5 – 7 गुणा महंगा सामान बेच रही थी इससे भी गरीबी बढ़ी। अमेरिका का “वाशिंगटन कंसेंसस” के जरिए वैश्वीकरण को लाने का मतलब ही था सिर्फ पूंजी बनाना, भारत में लोग अपनी पूरी आय के 60% हिस्सा सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर देते हैं, इतने बड़े संख्या में लोगों को बीमार करने के पीछे भी पूंजीवाद का ही हाथ है। पहले समस्या पैदा करो फिर उसकी समाधान करो मलेरिया, एचआईवी, टाईफाइड जैसी बीमारी को लाओ फिर 10 गुना ज्यादा दाम में उसकी दवा को बेचो जिससे हम सब गरीब हो जाए। अब एक नए चलन शुरूआत हो गई है बीमारी होने से पहले ही स्वास्थ्य बीमा करवा लो, फोन या लेपटॉप में वायरस लगने से पहले ही एंटी वायरस खरीद लो। अधिकांश लोग बिमा का इस्तेमाल नहीं करते हैं फिर भी उन्हें डर रहता है कि आने वाले समय में कोई घटना या दुर्घटना ना हो जाए।
साधारण भाषा में इसे “डर का सौदा” भी कह सकते हैं यह डर पैदा भी वही कंपनी करती है जिसको अपनी बीमा बेचनी रहती है। कार खरीदो, मोबाइल खरीदो, जमीन खरीदो, सभी का इंश्योरेंस, यहां तक कि गायक अपने गले का भी बीमा करवाते कहीं गला खराब ना हो जाए। ऐसे तो हजारों उदाहरण है लेकिन इस उदाहरण से समझिए कैसे कृत्रिम आपदा को प्राकृतिक आपदा दिखाया जाता है। मैं मानता हूं कि बाढ़ कृत्रिम आपदा है भारत में सिर्फ ब्रह्मपुत्र नदी में 2.2 मिलियन टन/दिन मिट्टी कट कर चली जाती है लाखों पेड़ के कटने से मृदा अपरदन होती है सारी मिट्टी नदी में जा मिलती है जिससे नदी का जलस्तर बढ़ जाता है और वही नदी का पानी मानसून में बारिश के पानी के साथ मिल कर बाढ़ लाती है, एक चीज समझीए जहां लाखों पेड़ काटे गए सिर्फ कुछ फैक्ट्रियां को लगाने के लिए इससे फायदा हुआ लेकिन ठीक इसके विपरीत लाखों लोग बाढ़ जैसी कृत्रिम आपदा से गरीब हो जाते हैं।
गरीबी की नई परिभाषा
कोरोना महामारी के दौरान विश्व बैंक ने गरीबी की नई परिभाषा दी “New Poor”, विश्व में 10 – 15 करोड़ लोग कोरोनावायरस के कारण गरीब हुए, भारत में गरीबों की संख्या में 80 लाख की वृद्धि हुई है। अच्छे खासे लोग सड़क पर आ गए उनके पास ऑक्सीजन खरीदने के पैसे नहीं है,और जो लोग पहले से गरीब थे उनके पास तो आज खाने को भी कुछ नहीं बचा है। यहां पर भी फायदा बड़े लोग, कारपोरेट हाउस को ही हुआ उन्होंने गिद्ध की भूमिका निभाई, बड़े कॉर्पोरेट हाउस महंगे दामों में ऑक्सीजन, इंजेक्शन और एंटीवायरल ड्रग को बेचने शुरू कर दी यहां पर भी वैश्वीकरण का अहम किरदार है कोरोना आने के शुरुआती दौर में चीन ने घटिया गुणवत्ता वाले पीपीई किट और वायरल ड़्ग भारी मात्रा में बेची इसके बाद कई देश वैक्सीनेशन की खोज की फिर वैक्सीन बेचने की होड़ लग गई, इससे गरीब देश और गरीब हूए, अमीर देश और अमीर, भारत में सभी सेक्टर वैश्विक क्षेत्र से जोड़ दिए गए थे लेकिन कृषि को नहीं जोड़ा गया था जिसका फल था कि कोरोना काल में जहाँ सभी सेक्टर नेगेटिव ग्रोथ रेट दे रहे थे वहीं कृषि सेक्टर +3.4% का ग्रोथ रेट था एक डाटा के अनुसार पिछले 20 सालों में कृषि उपकरण रासायनिक मल, बिज बनाने वाली कंपनी का राजस्व 60% बढ़ गई है लेकिन किसान की आय में सिर्फ 25 पैसे की वृद्धि हुई है।